खास खबरछत्तीसगढ़रायपुर

धर्मनिरपेक्ष राजनीति की मिसाल हैं मंत्री अकबर, साहसिक फैसले और ईमानदार छवि बनी पहचान

रायपुर- छत्तीसगढ़ के वनमंत्री मोहम्मद अकबर का 24 तारीख को जन्मदिन है. इत्तेफाक देखिए. मोहम्मद अकबर का जन्मदिन ठीक मुख्यमंत्री के बाद आता है. सरकार में भी उनका कद मुख्यमंत्री के बाद ही आता है. जन्मदिन का मौका सार्वजनिक जीवन में रहने वाले लोगों को परखने और जानने का मौका होता है. लिहाज़ा भूपेश बघेल के बाद अकबर को भी उनके काम, गुण और छवि के आईने में परखना चाहिए. आठ महीने के मंत्री के रुप में मोहम्मद अकबर की क्या वही ईमादार और जमकर काम करने वाली छवि बरकरार है या मंत्री पद ने अकबर को बदला है ?
अकबर कम लेकिन ठोस बोलने और करने वाले नेता के रुप में जाने जाते हैं. वे बेहद सुलझे और विवादों से दूर रहने वाले और कड़ी मेहनत करने वाले राजनेता के तौर पर जाने जाते हैं. अकबर को आंकने के लिए उनके दोनों दौर पर नज़र डालनी पड़ेगी. जब वे कांग्रेस नेता के रुप में संघर्ष कर रहे थे और जब वे सरकार के कद्दावर मंत्री हैं.
अकबर के राजनीतिक जीवन में बड़ा मोड़ तब आया तब वे 2013 में कवर्धा से विधानसभा चुनाव हार गए. पंडरिया से कवर्धा आए अकबर की टिकट आखिरी समय में कंफर्म हुई थी. नई सीट पर जमकर नोटा पड़ा. आरोप है कि इस चुनाव में जमकर सरकारी मशीनरी का दुरुपयोग हुआ. जिन पर अकबर को काफी भरोसा था, उसने भी अकबर के खिलाफ काम किया. लेकिन इतना सब होने के बाद भी अकबर केवल ढाई हज़ार से हारे ।
इस हार के पहले कार्यकाल में वो रमन सिंह सरकार के लिए सदन में सबसे बड़ी मुसीबत थे. उनके हाथ में दस्तावेज़ देखकर मंत्री और अधिकारियों की घिघ्घी बंध जाया करती थी. उन्हें लोग दस्तावेज़ी अकबर कहते थे. 2013 में वे विधानसभा नहीं पहुंचे लेकिन तात्कालीन बीजेपी सरकार के खिलाफ उनकी आक्रामकता की धार भोथरी नहीं हुई. उनके तेवर ढीले नहीं पड़े. पहले वे सदन और सड़क में सरकार को घेरते थे. चुनाव हारने के बाद वे सरकार को सड़क और कोर्ट में घेरने लगे.
इस हार के फौरन बाद अकबर की जंग शुरु हो गई. चुनाव में धांधली का आरोप लगाकर इस चुनावी हार के खिलाफ अकबर सुप्रीम कोर्ट चले गए. अकबर की चुनावी याचिका पर सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने सभी राज्यों की हाईकोर्ट में चुनावी याचिकाओं के निपटारे के लिए अलग बेंच बनाने का आदेश जारी किया.
अकबर की रमन सिंह की सरकार के खिलाफ कोर्ट की लड़ाई यहीं खत्म नहीं हुई. जब चुनावी याचिका का निपटारा हो गया तो संसदीय सचिवों के मसले पर अकबर ने फिर से रमन सिंह सरकार को हाईकोर्ट में कटघरे में खड़ा कर दिया. अकबर ने रमन सरकार को संसदीय सचिवों की लड़ाई में पसीने छुड़ा दिये. रमन आखिरी साल तक इस याचिका में उलझे रहे.
2013 से 2018 के दौरान कोर्ट और दस्तावेज़ों के साथ सड़क की लड़ाई के ज़रिए अकबर ने खुद को रमन सिंह के दूसरे सबसे बड़े विरोधी नेता के रुप में खुद को स्थापित किया. जिसका नतीजा हुआ कि 2018 के चुनाव में रमन के गृहक्षेत्र कवर्धा में भाजपा को मोहम्मद अकबर के हाथों सबसे करारी हार झेलनी पड़ी. अकबर ने यहां से करीब 60 हज़ार के रिकार्ड मतों से जीत दर्ज की.
इस दरम्यान अकबर सड़क पर भी तात्कालीन सरकार के खिलाफ मोर्चा लेते रहे. उन्होंने खुद को कांग्रेस के सबसे संघर्षशील शीर्ष नेताओं में शुमार किया. रमन सिंह सरकार को हर मसले पर अकबर ने दस्तावेज़ों के साथ घेरा, उसके भ्रष्टाचार को बेनकाब किया. बीजेपी सरकार का नान घोटाले जब सामने आया तो कई दस्तावेज़ों के साथ भूपेश-अकबर की जोड़ी ने नए खुलासे किए. ये जोड़ी सरकार के लिए मुश्किलें पैदा करती रही. दूसरी तरफ अकबर भूपेश बघेल के साथ सरकार के खिलाफ हर मोर्चे पर डटे रहे.
अकबर सरकार को घेरते रहे लेकिन एक भी दाग उनके दामन पर नहीं लगा. उनकी स्वच्छ छवि समय के साथ उजली होती गई, निखरती चली गई. अकबर की ताकत उनकी छवि है.एक तरफ उनकी ईमानदार और साफगोई है तो दूसरी तरफ उनका धर्मनिरपेक्ष आचरण है.
अकबर ने अल्पसंख्यक नेता होने के बाद भी उन्होंने कभी अपने संप्रदाय की राजनीति नहीं की. वे उस जगह से चुनाव जीते जो किसी हिंदूवादी संगठन रामराज्य परिषद का गढ़ रहा है. अकबर के खाते में सबसे बड़ा तमगा यही है कि उन्होंने कभी चुनाव को सांप्रदायिक नहीं होने दिया.
अपने धर्मनिरपेक्ष आचरण से वे सांप्रदायिक ताकतों के मंसूबों को कभी कामयाब नहीं देते हैं. सावन में भोरमदेव मंदिर में अकबर के रुद्राभिषेक करने की एक तस्वीर वायरल हुई. इस तस्वीर ने इस संभावना को पूरी तरह से क्षीण कर दिया है कि उनका कोई विरोधी उनके खिलाफ कभी सांप्रदायिक ध्रुवीकरण कर पाएगा.
मोहम्मद अकबर ने अपने क्षेत्र में हिंदू जनता के लिए सबसे ज़्यादा धार्मिक स्थल बनवाए. उनके नाम से हर नवरात्र में कई मंदिरोें में जोत जलाई जाती है. लेकिन उसके बाद भी अकबर प्रदेश में अल्पसंख्यकों समुदाय की वे सबसे बड़ी आवाज़ हैं. अकबर ने अपनी राजनीति से हिंदू-मुस्लिम के सौहार्दपूर्ण राजनीति की एक मिसाल कायम की है. अकबर की राजनीति में अल्पसंख्यक समाज खुद को सुरक्षित होने का एहसास पाता है तो बहुसंख्यक समाज भरोसा और विश्वास पाता है.
2018 में जब कांग्रेस पार्टी सत्ता में आई तो सभी बड़े नेता मंत्रीपद को लेकर आशंकित थे लेकिन अकबर को लेकर सभी राजनेता निश्चिंत थे. अकबर ने एक बार भी न दिल्ली का चक्कर लगाया न ही किसी संभावित मुख्यमंत्री के खेमे में दिखे. उन्हें अपनी काबिलियत और तजुर्बे पर पूरा यकीन था. जब मंत्रीमंडल के नामों का ऐलान हुआ तो अकबर के पास कई महकमे थे.
सिर्फ मंत्रीपरिषद में ही नहीं छत्तीसगढ़ की पूरी राजनीतिक जमात में अकबर बुद्धिकौशल और विषयों के समझ के मामले में काफी बेहतर माने जाते हैं. मंत्री के तौर पर उनके ये गुण नज़र आते हैं. आठ महीने के कार्यकाल में भी मोहम्मद अकबर पर विवाद का एक दाग नहीं है. वे भूपेश बघेल के सबसे विश्वसनीय मंत्री भी माने जाते हैं.
किसी नई योजना का खाका बनाना हो या फिर किसी जटील मसले को सुलझाना. भूपेश अकबर पर भरोसा करते हैं. सरकार की महत्वाकांक्षी यूनिवर्सल पीडीएस हो या लेमरू प्रोजेक्ट. इन साहसिक फैसलों में अकबर की भूमिका बेहद महत्वपूर्ण है. 8 महीने के बतौर मंत्री के रुप में अकबर ने अपनी अलग छाप छोड़ी है. उन्होंने इस दौरान कई रिज़ल्ट दिए हैं.
अमरजीत भगत को जब भूपेश बघेल ने अपना तेरहवां मंत्री बनाया तो अकबर ने आगे बढ़कर सबसे मलाईदार महकमा खाद्य एवं नागरिक आपूर्ति छोड़कर सबसे ज़्यादा चुनौतीपूर्ण वन महकमा अपने पास रखा. उन्होंने इसे सुधारने की दिशा में कई अहम काम किए हैं. जब उन्हें किसी अधिकारी के भ्रष्ट आचरण की शिकायत मिली. उन्होंने कार्रवाई की।

 

cgnewstime

Related Articles

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Back to top button
error: Content is protected !!