अवंतिका तिवारी
नई दिल्ली- जर्मनी के वित्तमंत्री ने आर्थिक चुनौतियों के आगे मौत सरल समझी और आत्महत्या कर ली. ये खबर हमें कोरोना वायरस की गंभीरता और विषमता दोनों का हाल बयां करती है. कोरोना वायरस को अब वैश्विक महामारी कहा जा रहा है. पूरे विश्व में सोशल डिस्टेंसिंग और सैनिटाइज़िंग की लहर चल रही है. और ठीक इसी समय पर भारत के मजदूरों के पास पलायन के अलावा कोई और रास्ता नहीं है. हज़ारों-लाखों की संख्या में मजदूर सड़कों पर बस चले जा रहे हैं.
कोरोना वायरस संक्रमण के फैलते ही भारत में समाज और मौजूदा सरकार की विफलताएं स्पष्ट रूप से नज़र आ रही हैं. 21 दिन का लॉकडाउन चल रहा है. भारत में गरीब और अमीर के बीच अंतर और भेदभाव अब मुखर होकर हमारे सामने खड़ा है. भारत के साफ-साफ दो टुकड़े देखे जा सकते हैं. पहला हिस्सा लॉकडाउन में घरों के खिड़की-दरवाजे बंद कर टी.वी. और मोबाइल फ़ोन पर दूसरे हिस्से का जायज़ा ले रहा है. दूसरा हिस्सा अपनी गृहस्थी सर पे लादे सड़कों पर प्रशासन के सैनिटाइज़र की बौछार के नीचे बेबस बैठा है.
भारत का पहला हिस्सा अगले छः महीने का भोजन और मनोरंजन जमा कर रहा है. व्हॉटसैप और फेसबुक के खातिर जो थोड़ा-बहुत दान दिया है, उस पर इतरा रहा है. लॉकडाउन में डे-1, डे-2 का आडंबर रचा रहा है. लेकिन दूसरा हिस्सा सड़क पर निडरता से निकल पड़ा है. वो इस लॉकडाउन में हज़ारों किमी पैदल चल कर घर जा रहा है. भूख, प्यास, बारिश, भीड़, और संक्रमण से उन्हें डर नहीं है. वो भी पहले हिस्से की तरह अपने घर अपनों के बीच पहुंचना चाहते हैं.
हर दूसरे दिन हमारी टी.वी स्क्रीनों पर इन गरीब मजदूरों की एक नई तस्वीर एक नई पीड़ा व्यक्त करते हुए सामने आ जाती है. 4-6 तथाकथित विद्वान इन गरीबों की मजबूरी की खाल उधेड़ते हैं. शायद बाकी देशवासी ये देख तंग आकर रिमोट उठा कर रामायण औऱ महाभारत देख अपना मन शांत कर लेते होंगे.
अब सवाल ये उठता है कि क्या इस विषम समय के पहले भी ये हिस्से बटे हुए थे? क्या सरकार और प्रिविलेज्ड समूह गरीबों और मजदूरों से आंखे चुरा चैन से जी रहा था? और अब जबकि आर्थिक भेदभाव की स्थिति पूरी तरह से स्पष्ट है तो क्या ये देश उन दुत्कारे हुए लेकिन बेहद आवश्यक नागरिकों को अब भी नज़रअंदाज करेगा?
बतौर नागरिक हमें इस फर्क की बारीकियों को समझना होगा. कैसे भारत का एक हिस्सा दूसरे पर सिर्फ तरस खा रहा है. और दूसरा हिस्सा अपने जान की बाज़ी लगाने को मजबूर है.