एक-दूसरे की जान लेकर नहीं, एक-दूसरे को जानकर ही बच सकेंगे
छत्तीसगढ़- प्रदेश के दस जिलों में हाथियों का आतंक बढ़ रहा है। शुक्रवार को जशपुर में एक वृद्ध महिला को फिर दंतैल ने कुचल कर मार डाला। डेढ़ साल में हाथियों ने प्रदेश में यह 104 वीं जान ली है। हाथियों के हमले पहले भी होते रहे हैं, लेकिन पिछले साल से इसकी संख्या और आक्रामकता दोनों बढ़ गई हैं।
प्रदेश के जंगलों में घूम रहे प्यारे, गणेश जैसे कुछ चिह्नित हाथी इतने खूंखार हो गए हैं कि ग्रामीणों का पीछा कर उन्हें रौंद देते हैं। सरगुजा में प्यारे को 60 मौतों का जिम्मेदार माना जाता है। जब हमले बढ़े तो पहले बचाव की मुद्रा में रहे ग्रामीण बदले पर उतरे आए हैं। नतीजा पिछले डेढ़ साल में 25 हाथियों की भी मौत हो गई। इनमें से कुछ जहर तो कई खुले छोड़ दिए गए बिजली तारों के करंट से। यह संघर्ष बढ़ रहा है, लेकिन सरकार कोई ठोस कदम उठाते नहीं दिख रही है। ऐसी घटनाओं के बाद हमेशा की तरह हाथी मित्र दल जैसी बेमानी योजनाएं, काल्पनिक एलिफेंट रिजर्व के वादे नेताओं-अफसरों के बयानों में हैं।
महासमुंद : खिरसाली गांव है हाथियाें का एंट्री प्वाइंट, रातभर गश्त ताकि बाकी गांव साे सके
जिला मुख्यालय से 40 किमी दूर बसे खिरसाली काे हाथियों का एंट्री प्वाइंट कहते हैं। बार नवापारा के जंगल से हाथियों का झुंड तालाझर होते जिले में प्रवेश करता है। अभी एक महीने से बार दल के हाथी क्षेत्र में नहीं हैं। इसलिए ग्रामीणों को थोड़ा सुकून है, लेकिन ऐसे हाथियों की मौजूदगी उनकी नींद उड़ाए रखती हैै। हाथी जब यहां रहते हैं तो शिफ्ट में युवाओं की ड्यूटी लगाई जाती थी। क्योंकि हाथी कब कहां से आ जाएं किसी को पता नहीं होता। गांवों में उनके आने का कारण जंगल में पर्याप्त भोजन-पानी का न होना है।
लाइट तक नहीं लग सकी : हाथी भगाओ, फसल बचाओ संस्था के राधेलाल सिन्हा कहते हैं कि कई प्रभावित गांवों में अब तक लाइट लगाने की मांग तक पूरी नहीं हो सकी है। लहंग, परसाडीह, गुडरुडीह सहित कुछ गांव में इलेक्ट्रिक बैरीकेड से जनहानि रुकी है, पर फसल की हानि रोकने उपाय नहीं किए गए हैं।
अंबिकापुर : पिछले डेढ़ साल में 42 लोग जान गंवा चुके, हाथी व ग्रामीणों के बीच सीधी लड़ाई
तीन हाथियों की मौत के बाद सरगुजा एक बार फिर सुर्खियों में हैं। प्रभावित गांवों में अलग-अलग दल में करीब सौ हाथी भटक रहे हैं। हालात यह है कि हाथी और मानव के बीच द्वंद की स्थिति बन गई है। इस लड़ाई में कहीं हाथी मारे जा रहे हैं तो कहीं ग्रामीणों की जान जा रही है। पिछले डेढ़ साल में ही सरगुजा सहित इस रेंज में आने वाले सूरजपुर से लेकर बलरामपुर तक हाथियों के हमले में 42 लोगों को अपनी जान गवानी पड़ी। वहीं 15 हाथी भी मारे गए हैं। सबसे अधिक मौतें सूरजपुर जिले के प्रतापपुर रेंज में हुई है।
साथी की मौत के बाद आक्रामक हो जाते हैं हाथी
सरगुजा में हाथियों की समस्या पर काम कर रहे विशेषज्ञों के अनुसार दल के किसी साथी की मौत के बाद हाथी अक्रामक हो जाते हैं। प्यारे हाथी ने दल के तीन हाथियों की मौत के तीसरे दिन ही एक युवक को दौड़ा कर मार दिया था। जब-जब किसी हाथी की मौत हुई है ऐसा हर बार हुआ जब हाथियों ने किसी ने किसी को मारा है। प्रतापुर के जिन इलाकों में हाथियों हाथी व मानव के बीच टकराव की स्थिति बन गई है इन इलाकों में गन्ने की खेती होती है।
हाथी मित्र दल का पता नहीं: सरगुजा इलाके में हाथी प्यारे आतंक का नाम बन चुका है। पिछले छह साल में प्यारे अकले 60 लोगों को मार चुका है। हाथियों पर नजर रखने के लिए बना प्रभावित इलाकों में हाथी मित्र दल का पता नहीं है।
हमारी सुरक्षा भी हो : ग्रामीणों का कहना है कि हाथी जंगल में रहें हमें कोई दिक्कत नहीं लेकिन हमारी सुरक्षा भी होनी चाहिए। हाथियों से जानमाल, घर,फसल बचना मुश्किल हो गया है। ग्रामीण रात-रात भर सो नहीं पाते।
धमतरी : जगह बदल रहे हाथियों का पता लगाना कठिन, एक के गले में आईडी, ये नाकाफी
जिले में आया हाथियों का दल वापसी के रास्ते पर है। पिछली लोकेशन बरबांधा के पास थी। वन विभाग के अफसर कॉलर आईडी से लोकेशन पर निगाह रखते हैं। लेकिन इससे कॉलर आईडी पहनाई गई चंदा हथिनी का ही पता चल रहा है। बाकी 19 हाथियों की सही लोकेशन किसी के पास नहीं रहती है। कई बार चंदा हथिनी की लोकेशन जंगल में बताती रहती है। बाकी कुछ हाथी आसपास के गांव में पहुंचकर बाड़ी में लगी सब्जी व केला खा रहे हैं। गांव वालों की सूचना पर हाथियों की जानकारी अफसरों को मिलती है।
सूचना पर नहीं आती टीम : बरबांधा, अरौद, पहरिया कोना व आसपास के गांवों के लोगों ने बताया कि रात में सूचना भी दी जाए तो टीम मदद को नहीं आती। ऐसे में अपनी सुरक्षा खुद ही करनी पड़ती है। वैसे जिले में 15 दिन से हाथियों का समूह है। लेकिन बड़ा नुकसान नहीं किया है।
कोरबा : 20 साल में हाथियों का गढ़ बन चुका वनमंडल, पहले भालू-तेंदुए, अब हाथियों का खौफ
जिले में हाथी से बड़ी समस्या हो गई है। अब तक किए गए उपाय फेल हो गए हैं। 20 साल से हाथियों की आवाजाही के बीच ग्रामीण अब जीना सीख गए हैं। कोरबा वन मंडल की सीमा से लगे मांड नदी पार कर हाथी कुदमुरा परिक्षेत्र में घुसते हैं। वहां के लोग अब हाथियों के आने से नहीं घबराते। फसल की सुरक्षा के लिए गांव-गांव में एकजुटता है। जिसकी वजह से पहले से अब कम नुकसान होता है। सबसे अधिक खतरा दंतैल हाथियों से रहता है जो झुंड से अलग होकर घूमते हैं।
हुल्ला पार्टी से लेकर कुमकी तक हो गए फेल
हाथियों से बचाव के सभी उपाय फेल हुए हैं। सबसे पहले पश्चिम बंगाल से वर्ष 2007-08 में हुल्ला पार्टी को बुलाया गया। जो हाथियों को खदेड़ने का काम करती थी। यह प्रयास कारगर नहीं हुआ। कुमकी (तमिल में कुमकी का अर्थ प्रशिक्षित हाथी) को बुलाकर कंट्रोल करने की योजना कारगर नहीं हुई। हाथियों को प्रशिक्षित करने असम से पार्वती बरुआ भी आईं लेकिन जशपुर में प्रशिक्षण के दौरान एक हाथी की मौत के बाद वापस चली गईं।
2000 में आए थे हाथी : कुदमुरा रेंज में 29 सितंबर 2000 को 20 हाथी धरमजयगढ़ वनमंडल के खड़गांव से आए थे। अब ये कोरबा, करतला, लेमरू, बालको, पसरखेत, कटघोरा तक फैल चुके हैं।
नहीं मिला मुआवजा : दोनों वन मंडल में फसल क्षति का दो करोड़ से अधिक का मुआवजा बांटा गया है। मुआवजा उन्हीं को मिल पाता है जिनकी क्षति का आंकलन होता है। बाकी के हाथ खाली रह जाते हैं।
विशेषज्ञों की राय
कुछ साल पहले तक हाथी हिंसक नहीं थे, ऐसा क्यों? सोचना जरूरी
कुछ साल पहले तक हाथी थोड़ा बहुत उत्पात मचाते थे, लेकिन हिंसक नहीं थे। ग्रामीणों ने भी हाथियों के साथ सहअस्तित्व को स्वीकार कर लिया था और वे बचाव की मुद्रा में रहते थे, लेकिन अब ग्रामीण बदला ले रहे हैं। तालाबों में जहर मिला रहे हैं, खेतों में खुले बिजली के तार छोड़ रहे हैंं। हाथी की सूचना मिलते ही सैकड़ों ग्रामीण मशालें, पटाखे, सर्चलाइट लेकर उनके दलों पर धावा बोल देते हैं। ऐसे में पहले से परेशान हाथी और भड़क जाते हैं। उस समय तो वे लौट जाते हैं,लेकिन मौका मिलते ही गांवों पर हमला करते हैं। यह संघर्ष बढ़ रहा है और सरकार के पास ना तो हाथी के विशेषज्ञ हैं और ना ही हाथियों को रोकने की कोई ठोस योजना। 20 सालों में सरकार ने इस समस्या के समाधान के लिए फेंसिंग लगवाई, आपरेशन जंबो चलाया, हुल्ला पार्टी बुलाई लेकिन सभी प्रयास फेल हो गए। हाथियों की समस्या से बचने का एक ही उपाय है सहअस्तित्व। इसके लिए हाथी प्रभावित क्षेत्र के ग्रामीणों को ट्रेनिंग देनी होगी, कि वे हाथियों के आने पर क्या करें, क्या ना करें।
-प्राण चड्ढा, वाइल्ड लाइफ बोर्ड के पूर्व सदस्य
इस संघर्ष में भी सोशल डिस्टेंसिंग की सोच से बन सकती है बात
अमूमन हाथी अपनी राह चलते हैं। वे तभी किसी को नुकसान पहुंचाते हैं जब उनके रास्ते में कोई रुकावट डाले या खतरा बने। प्रदेश में इस समय ग्रामीणों और हाथियों के बीच जो संघर्ष की स्थिति है उसे सोशल डिस्टेंसिंग के सहारे धीरे-धीरे खत्म किया जा सकता है। हाथियों से दूर रहें। उनके आने-जाने का मार्ग तय है, समय भी तय है, लिहाजा इन सभी बातों का विश्लेषण कर एक प्लान बने और फॉलो हो। हाथियों की याददाश्त के साथ-साथ सूंघने की क्षमता भी बहुत तेज होती है, लिहाजा गांवों में जब महुए की शराब बनाई जाती है और घरों में रखी जाती है तब हाथी गांव के भीतर आते हैं। इसका कोई उपाए निकाला जाए। हमारे प्रदेश में हाथियों की संख्या बढ़ रही है, लेकिन उनका व्यवहार जानने वाले विशेषज्ञ नहीं हैं, डाॅक्टर्स भी नहीं है। हाथी दो मौकों पर बेहद खतरनाक हो जाता है, एक तो उसके मदकाल में और दूसरा घायल होने में। इससे निपटने एक ही तरीका है हाथी विशेषज्ञों से ग्रामीणों और वन कर्मियों की ट्रेनिंग।
-विवेक जोगलेकर, वन्य प्राणियों के जानकार