किसान आंदोलन: भारत में पत्रकारों को क्या निशाना बनाया जा रहा है?
2014 की गर्मियों में कार्यभार संभालने के एक महीने बाद, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा था कि "अगर हम अभिव्यक्ति की आज़ादी की गारंटी नहीं दे सकते तो भारत का लोकतंत्र कायम नहीं रहेगा."

दिल्ली – छह साल बाद, कई लोगों का मानना है कि भारत का लोकतंत्र कमज़ोर होता जा रहा है. उनका कहना है कि ऐसा प्रेस की स्वतंत्रता पर लगातार हमलों की वजह से हो रहा है.
बीते साल 180 देशों के वर्ल्ड प्रेस फ्रीडम इंडेक्स में दो पायदान नीचे खिसककर भारत 142 पर आ गया. ये एक ऐसे देश के लिए अटपटी बात है जो अक्सर अपने जीवंत और प्रतिस्पर्धी मीडिया पर गर्व करता है.
ताज़ा कार्रवाइयां कृषि क़ानूनों का विरोध कर रहे किसानों की एक रैली में हुई हिंसा के बाद हुईं. इस दौरान हुई झड़पों में एक प्रदर्शनकारी की मौत हो गई और 500 से ज़्यादा पुलिसवाले घायल बताए गए.
अब पुलिस ने दिल्ली में इन प्रदर्शनों को कवर करने वाले आठ पत्रकारों के ख़िलाफ़ राजद्रोह और राष्ट्रीय एकता के ख़िलाफ़ शत्रुतापूर्ण बयान देने की आपराधिक धाराओं के तहत मामले दर्ज किए हैं.
26 जनवरी की रैली के दौरान जान गंवाने वाले प्रदर्शनकारी की मौत की वजह को लेकर विवाद है. एक तरफ़ पुलिस का कहना है कि प्रदर्शनकारी जो ट्रैक्टर चला रहा था, वो ट्रैक्टर पलटने से उसकी मौत हुई, वहीं परिवार का आरोप है कि उन्हें गोली मारी गई थी.
कई अख़बारों और पत्रिकाओं ने परिवार के इस पक्ष को प्रकाशित किया है, ऐसा लगता है कि पत्रकारों के ख़िलाफ़ मुक़दमों का आधार इसी को बनाया गया है.
कुछ पत्रकारों ने रिपोर्टिंग की या स्टोरी छापी और अन्य ने सिर्फ इसे सोशल मीडिया पर साझा किया था.
उनमें से छह और एक विपक्षी कांग्रेस पार्टी के प्रमुख सांसद, मौत से जुड़े तथ्यों को “ग़लत तरह से पेश करने” के आरोप में चार बीजेपी शासित राज्यों में मुक़दमों का सामना कर रहे हैं.
द वायर के एडिटर-इन-चीफ़ सिद्धार्थ वरदराजन उन पत्रकारों में से एक हैं जिन पर पुलिस ने ये मामले दर्ज किए हैं.
सिद्धार्थ कहते हैं, “अगर मृत व्यक्ति के परिजन पोस्टमार्टम या पुलिस के बताए मौत के कारण पर सवाल उठाते हैं तो क्या मीडिया का उनके बयानों को रिपोर्ट करना अपराध है?”
कार्रवाइयों का विरोध
अधिकार समूह और कई साथी पत्रकार इस तरह की कार्रवाई से नाराज़ हैं.
मानवाधिकारों के लिए काम करने वाली अंतरराष्ट्रीय संस्था ह्यूमन राइट्स वॉच की दक्षिण एशिया निदेशक, मीनाक्षी गांगुली ने कहा है, “भारतीय अधिकारी शांतिपूर्ण प्रदर्शनकारियों को बदनाम करने, सरकार के आलोचकों को परेशान करने और घटनाओं की रिपोर्टिंग करने वालों पर मुक़दमे दायर करने की नीति पर चल रहे हैं.”
वहीं एडिटर्स गिल्ड ऑफ इंडिया ने कहा कि पुलिस केस “मीडिया को डराने, परेशान करने और धमकाने का एक प्रयास हैं.”
कई लोग कारवां का उदाहरण देते हैं, जो एक खोजी समाचार पत्रिका है और अक्सर अपनी रिपोर्टों के ज़रिए मोदी सरकार से सवाल करती है.
इस पत्रिका के तीन सबसे वरिष्ठ संपादकीय कर्मचारियों – प्रकाशक, संपादक और कार्यकारी संपादक – के ख़िलाफ़ प्रदर्शनकारी की मौत से जुड़ी एक स्टोरी और ट्वीट्स के लिए पांच राज्यों में दस राजद्रोह के मामले दर्ज किए गए हैं.
पत्रिका के एक फ्रीलांस रिपोर्टर को “बाधा” डालने के आरोप में एक प्रदर्शन स्थल से गिरफ़्तार कर लिया गया था और दो दिन बाद ज़मानत पर छोड़ दिया गया.
सरकार के एक लीगल नोटिस के बाद पत्रिका के ट्विटर अकाउंट को कुछ घंटे के लिए सस्पेंड कर दिया गया था.
पिछले साल, कारवां के चार पत्रकारों पर दो बार उस वक़्त हमला हुआ था जब वो सांप्रदायिक दंगों के बाद के हालात पर और दिल्ली में एक किशोरी के कथित बलात्कार और हत्या के मामले में निकाले गए प्रदर्शन की रिपोर्टिंग कर रहे थे.
कारवां के कार्यकारी संपादक विनोद जोस ने मुझसे कहा, “यहां ये एक नैरेटिव है जो बहुत ख़तरनाक है. हम ऐसे ध्रुवीकरण वाले समय में जी रहे हैं, जहां सरकार के आलोचकों को राष्ट्र-विरोधी घोषित कर दिया जाता है. सत्ता में बैठे लोगों से सवाल करना पत्रकारों का काम है.”
सत्ताधारी भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) ने इस बात से इनकार किया कि पत्रकारों को निशाना बनाया जा रहा है. बीजेपी का मानना है कि जो कुछ भी हो रहा है वो सरकार के ख़िलाफ़ चलाए जा रहे प्रोपेगेंडा का हिस्सा है.
बीजेपी के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष बैजयंत पांडा ने मुझे कहा, “राजनीतिक पार्टियों के प्रति झुकाव रखने वाले और स्पष्ट तौर पर सरकार के ख़िलाफ़ दिखाई देने वाले सभी पत्रकार अख़बारों, टीवी और ऑनलाइन पोर्टलों पर खुले तौर पर लगातार लिख और बोल रहे हैं.”
बैजयंत पांडा कहते हैं, “पुलिस ने हाल में कुछ मामलों में पत्रकारों के ख़िलाफ़ शिकायतें दर्ज की हैं क्योंकि उन पर गंभीर हिंसा के इरादे से दंगे जैसी स्थिति में फर्ज़ी ख़बरों को बढ़ावा देने के गंभीर आपराधिक आरोप लगाए गए हैं.”
उन्होंने एक प्रमुख समाचार नेटवर्क के वरिष्ठ एंकर के मामले की ओर इशारा किया, जिन्हें एक प्रदर्शनकारी की मौत से जुड़ा “ग़लत” ट्वीट करने के कारण ऑफ़ एयर कर दिया गया और उनका वेतन रोक दिया गया था.
पांडा कहते हैं, “ये सिर्फ झूठा नैरेटिव गढ़ने की बात नहीं थी, बल्कि इससे बड़े पैमाने पर हिंसा भड़क सकती थी. ये और इनके जैसे दूसरे पत्रकारों ने पहले भी कई बार ऐसे झूठे नैरेटिव को हवा देते रहे हैं, बल्कि जब प्रभावित पक्ष इन्हें कोर्ट ले गए तो इन्हें माफ़ी भी मांगनी पड़ी.”
उन्होंने कहा कि “जिन राज्यों में मोदी सरकार का विरोध करने वाली पार्टियों का शासन है और जिनके साथ ये पत्रकार बेवजह सहानुभूति दिखाते हैं, असल में वो सत्ता का दुरुपयोग कर पत्रकारों को परेशान करती हैं.”
कई इस बात पर सवाल उठाते हैं कि औपनिवेशिक काल के राजद्रोह क़ानून का इस्तेमाल असहमति पर नकेल कसने के लिए क्यों किया जा रहा है. वेबसाइट आर्टिकल-14 की ओर से जुटाए आंकड़ों के मुताबिक़, बीते एक दशक में नेताओं और सरकारों की आलोचना करने वाले 405 भारतीयों के ख़िलाफ़ राजद्रोह के ज़्यादातर मामले 2014 में नरेंद्र मोदी के सत्ता में आने के बाद दर्ज किए गए.
इस ध्रुवीकृत माहौल में, पत्रकार पहले से कहीं ज़्यादा बंटे हुए नज़र आते हैं. अधिकांश मुख्यधारा के मीडिया, जिनमें समाचार नेटवर्कों का एक समूह भी शामिल है, मोदी सरकार से कभी सवाल करते नहीं दिखते.
फ्रीडम हाउस की एक रिपोर्ट कहती है, “भारत, दुनिया का सबसे अधिक आबादी वाला लोकतंत्र, ये संकेत भी दे रहा है कि सरकार को जवाबदेह ठहराना प्रेस की ज़िम्मेदारी का हिस्सा नहीं है.”
मीडिया पर ताज़ा कार्रवाइयां किसान आंदोलन की रिपोर्टिंग के बाद हुई हैं
कइयों का मानना है कि भारत पत्रकारों के लिए एक असुरक्षित जगह बनती जा रही है. फ्री स्पीच कलेक्टिव के लिए गीता सेशु के एक अध्ययन के अनुसार, साल 2020 में 67 पत्रकारों को गिरफ़्तार किया गया और क़रीब 200 पर हमले हुए. उत्तर प्रदेश में एक युवती के साथ हुए गैंग-रेप के मामले को कवर करने जा रहा एक पत्रकार पांच महीने से जेल में है.
सरकार की आलोचना करने वाले पत्रकारों, ख़ासकर महिला पत्रकारों को ऑनलाइन ट्रोलिंग और धमकियों का सामना करना पड़ता है.
दिल्ली की फ्रीलांस पत्रकार नेहा दीक्षित कहती हैं कि उनका “पीछा किया गया और खुलेआम बलात्कार और हत्या की धमकी दी गई है, बुरे तरीक़े से ट्रोल किया गया”, और उनके अपार्टमेंट में घुसने की कोशिश की गई.
इसी हफ़्ते, पुलिस ने एक अन्य फ्रीलांस पत्रकार रोहिणी सिंह को कथित रूप से जान से मारने और बलात्कार की धमकी देने के लिए एक लॉ के छात्र को गिरफ़्तार किया है.
ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय में लॉ के वाइस-डीन, तरुनाभ खेतान के अनुसार, भारत में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को मिला संरक्षण कभी मज़बूत नहीं रहा.
हालांकि इसकी संवैधानिक गारंटी दी गई है, लेकिन 1951 में तब के प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के कार्यकाल में पहला संशोधन करके इसके दायरे को काफ़ी सीमित कर दिया गया था.
त्रिपुरदमन सिंह ने अपनी किताब सिक्सटीन स्टॉर्मी डेज़ में लिखा है, “तब भारत सरकार ने पाया कि नागरिक स्वतंत्रता की बातें करना एक बात थी, और उन्हें सिद्धांतों के तौर पर बनाए रखना अलग बात.”
प्रो खेतान कहते हैं कि और राज से विरासत में मिली औपनिवेशिक पुलिस और आपराधिक न्याय प्रणाली ने “मानवाधिकारों की रक्षा को अपने पहले कर्तव्य के बजाय एक बाधा के रूप में” देखना जारी रखा हुआ है.
वो कहते हैं कि भारत के सुप्रीम कोर्ट का भी कई अन्य लोकतंत्रों की अदालतों की तुलना में नागरिक स्वतंत्रता की रक्षा करने के मामले में ख़राब ट्रैक रिकॉर्ड रहा है.
प्रो खेतान ने मुझसे कहा, “सबसे बड़े पीड़ित दो संस्थान हैं जिनका राजनीतिक और कॉर्पोरेट सत्ता से स्वतंत्र होना लोकतंत्र के लिए अहम है: वो दो संस्थाएं हैं – मीडिया और विश्वविद्यालय. इन संस्थानों की भूमिका सत्ता को चुनौती देने और सत्ता से विवेकपूर्ण जवाबदेही लेने की है. लेकिन एक बार पकड़े जाने के बाद, वो ये करने के बजाए सत्ता के उपकरणों की तरह काम करने लगते हैं. स्वतंत्र अभिव्यक्ति की कमज़ोर सुरक्षा उन्हें पकड़ने या उनके समझौता कर लेने को अपेक्षाकृत आसान कर देती है.”
1975 में जब तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने नागरिक स्वतंत्रता को निलंबित कर दिया था और देशव्यापी आपातकाल लगा दिया, तब 21 महीनों तक भारत में मीडिया पर प्रतिबंध रहा था.
प्रो खेतान कहते हैं, “मौजूदा राजनीतिक दौर में असामान्य बात ये है कि अभी औपचारिक आपातकाल लागू नहीं है. अधिकारों का कोई औपचारिक निलंबन नहीं हुआ है. लेकिन व्यवहारिक रूप से उनमें ज़बरदस्त तरीक़े से ज़ंग लगता जा रहा है. हम एक अतिरिक्त-क़ानूनी, अनौपचारिक, आपातकालीन स्थिति में रह रहे हैं. औपचारिक आपातकाल के दौरान, एक नागरिक शायद ये उम्मीद कर सकता है कि आपाकाल हटाए जाने पर चीज़ें वापस सामान्य हो जाएंगी.”
“आप एक अनौपचारिक आपातकाल को ‘कैसे’ हटाएंगे, जो कभी घोषित किया ही नहीं गया?”