
पलारी। भगवान हमारे ऊपर कृपा करते हैं और हम को सक्षम बनाते हैं। लेकिन सक्षम बनते ही हमारे अंदर एक परिवर्तन होता है वह परिवर्तन यह होता है कि हमें लगने लगता है कि हम ही शक्तिमान है, जो कुछ कर रहे हैं हम स्वयं कर रहे हैं व जैसे से ही यह अभिमान हमारे मन में आता है तब वैसे ही हमारी शक्तियां पीछे हटने लग जाती है। अगर किसी दूसरे की वस्तु पर हम अपना क्लेम करेंगे, स्वाभाविक है कि जिसकी वस्तु है। वह धीरे–धीरे अपनी वस्तु को अपने पास वापस बुलाने लगेगा। समझदार और विद्वान लोग कहते हैं। भगवान कृपा से आज यह कार्य हो गया प्रभु की कृपा है कि उन्होंने हमको इतना समर्थ बनाया। उन्हीं की दी गई शक्ति से हम कार्य कर रहे हैं, जिसके मन में यह आ जाता है कि मैं स्वयं शक्तिमान हूं, उसी समय से उसका पतन शुरू हो जाता है।
आपने स्वाभिमान व अभिमान दोनों शब्द सुन रखा है, दोनों के बीच में एक रेखा है किसको हम स्वाभिमान कहे किसको हम अभिमान कहें। क्योंकि विद्वान लोग हमको स्वाभिमान करने के लिए भी कहते हैं और अभिमान ना करने के लिए कहते हैं, लेकिन स्वाभिमान व अभिमान में अंतर साफ साफ बताते नहीं है। जान लीजिए यह अंतर यह है कि जब तक किसी बात के लिए आपके मन में अभिमान है। अभी तक वह स्व तक सीमित है अभी आप अपने को ऊंचा समझ रहे हो मेरे पास आमुख सद्गुण, संपत्ति है, लेकिन अभी आपने उसमें दूसरे को सम्मिलित नहीं किया। माने मैं बड़ा हूं, ऐसा सोचना कोई खराब नहीं, मैं विशिष्ट हूं सोचना भी स्वाभिमान ही है। लेकिन मैं तो विशिष्ट हूं व यह जो सामने खड़ा है वह तो तुच्छ है ऐसी भावना जब आपके मन में आ जाती है, तो पहले आप जो सोचते थे कि मैं विशेष हूं कोई सामान्य थोड़ी हूं इसलिए मुझे सामान्य कार्य नहीं विशेष कार्य करने चाहिए यहां तक तो आपके जो मन की भावना थी। उसका नाम था स्वाभिमान, लेकिन जैसे इस भावना के साथ आपने किसी को तुच्छ समझना शुरू कर दिया तब समझ लो कि आपका स्वाभिमान अभिमान बन गया।
सब विशिष्ट है सब में कुछ ना कुछ गुण हैं सब भगवान के हैं भावना रखते हुए मैं भी कोई सामान्य नहीं हूं। ऐसी भावना रखना इसमें कोई खराबी नहीं, लेकिन दूसरे को तुच्छ समझ कर अपने आप को विशिष्ट समझना इसी का नाम अभिमान है व जब ऐसा अभिमान किसी के मन में आता है तो उसका पतन शुरू हो जाता है लेकिन यह ‘अभिमान’ किस में आता है ? हर किसी में। यह अभिमान किसी को छोड़ता नहीं हैं।
संसार में ऐसा कोई जन्मा ही नहीं है, जिसको प्रभुता मिल जाए और अभिमान ना आए, जब कुछ प्राप्ति होती है तो उस प्राप्ति का अभिमान व्यक्ति के मन में आ जाता है।
यह रहता कब तक है यह बात अलग है कुछ लोगों के मन में अभिमान आता है भगवान कृपा करके तुरंत उसको निकाल देते हैं और वह व्यक्ति भी समझ जाता है कि यह गलत बात गलत भावना मेरे मन में आ गई मुझे इस को ज्यादा देर तक अपने मन में नहीं रखना चाहिए, तो वह निकाल करके फेंक देता है व कुछ लोग होते हैं जो सदा उसे अपने पास बनाए रखते हैं और इसीलिए उनका पतन निरंतर होता चला जाता है। सबके मन में अभिमान किसी ना किसी समय किसी ना किसी बात का कभी किसी को रूप का, कभी किसी को धन का, संपत्ति का, किसी को ज्ञान का अभिमान आ जाता है, जिसके पास जो आता है उसी का अभिमान उसे आ जाता है, जो बुद्धिमान हैं पहली ठोकर में ही संभल जाता है। कुछ लोग ऐसे होते हैं जो संसार में जो दूसरों को ठोकर लगते हुए देखते हैं ना उतने से ही संभल जाते हैं। यहां ठोकर है सिर झुका करके चलना है। पहले से सावधान रहते हैं और जहां पर ठोकर की जगह वहां सिर झुका के आगे बढ़ जाते हैं तो उनको ठोकर नहीं लगती। कुछ लोग ऐसे होते हैं, जो इतना ध्यान तो नहीं रखते लेकिन एक बार ठोकर लग जाए तब दोबारा उस रास्ते में से निकलते समय इस बात का ध्यान रखते हैं। यहां जब पिछली बार में आया था तो ठोकर लगी थी। इस बार मुझे ठोकर नहीं खाना, तो वह अगली बार कम से कम सिर झुका करके आगे बढ़ते हैं लेकिन कुछ लोग ऐसे भी होते हैं, जिनको इस बात का ध्यान ही नहीं रहता जितनी बार आते हैं उतनी बार ठोकर खाते रहते हैं, जो दूसरों की ठोकर देखकर ही संभल जाए वह उत्तम और जो पहली बार ठोकर खाकर संभल जाएगा मध्यम और जो ठोकर खा-खा कर भी ना समझे उसके लिए कोई शब्द हो ही नहीं सकता। लेकिन ठोकर है और वह अभिमान रूपी ठोकर यह सबके मन में आ जाता है अरे मनुष्य क्या भगवान में आ जाता है।
भगवान नारायण के अवतार हैं पराशर के पुत्र ‘व्यास’ उनके मन में अभिमान आ गया। वह साक्षात नारायण है। इसीलिए तो आप देखिए, भगवान शंकराचार्य जी के जीवन में प्रसंग आता है, जब दक्षिण भारत से चलकर शंकर घाट में वे आए जहां गोविंद मुनि से उन्होंने दीक्षा प्राप्त की व गुरुजी से कुछ काल अध्ययन किया। अध्ययन करके गुरुजी के आदेश से काशी गए। काशी में जाकर उन्होंने जो ब्रह्म सूत्र में भाग से लिखे थे उनको प्रचारित करना शुरू करना चाहा तभी उनके सामने व्यास जी आ गए व्यास जी ने उनके, जो सूत्र हैं ब्रह्म सूत्र जिसके ऊपर भगवान शंकराचार्य जी ने भाष्य लिखा था। उन्हीं में से एक सूत्र पर शास्त्रार्थ शुरू कर दिया यह जो सूत्र है ब्रह्मसूत्र इसी पर शास्त्रार्थ शुरू हो गया।
एक तरफ व्यास जी और दूसरी तरफ शंकराचार्य जी हैं अब चलने लगा शास्त्रार्थ 1 दिन चला दो दिन चला अंत ही नहीं हो रहा था ना कोई हार रहा था ना कोई जीत रहा था एक के बाद एक गोटियां चलती चली जा रही थी ऐसी परिस्थिति में जब कई दिन बीत गए तो शंकराचार्य जी के शिष्य खड़े हुए हाथ जोड़कर के दोनों के सामने हाथ जोड़ खड़े हुए। बोलो यह जो शंकराचार्य जी यह साक्षात शंकर के अवतार हैं और व्यास जी साक्षात नारायण और जब शंकर जी और भगवान नारायण में विवाद हो रहा तो बताइए और किसी का विवाद हो रहा हो तो हम उसके बीच में चले जाएं निर्णय कर दे यह हारा यह जीता अथवा बराबरी की घोषणा कर दे लेकिन यह कोई सामान्य शास्त्रार्थ नहीं है।
एक तरफ स्वयं भगवान ज्ञान के देवता विष्णु हैं और दूसरी तरफ उन्ही भगवान विष्णु के सामने भगवान शंकर बैठे हैं। दोनों एक दूसरे को अपना इष्ट भी मानते हैं दोनों एक दूसरे का ध्यान भी करते हैं और दोनों एक दूसरे के आमने सामने भी खड़े होकर के शास्त्रार्थ कर रहे हैं ऐसी विकट परिस्थिति है। अब आप लोग अपना शास्त्रार्थ थोड़ी देर के लिए रोक करके हम लोगों को बता दीजिए हम लोग क्या करें। आप लोगों के शास्त्रार्थ का अंत तो होगा ही नहीं। फिर शास्त्रार्थ पर अंकुश लगा, लेकिन यहां पर बात क्या निकल कर आई स्वयं नारायण हो तो भगवान नारायण के ही अवतार व्यास जी हैं उनके मन में अभिमान आ गया। त्रिकाल यज्ञ है, वेद शास्त्र के रहस्य को जानने वाले हैं वेदों का चार विभाग इन्हों ने हीं किया है। एक वेद को चार भागों में बांट करके ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद व अथर्ववेद बना दिया। अब उन वेदों के जो तात्पर्य है उनका जो अर्थ है उनको सामान्य लोगों को समझाने के लिए पुराण की रचना करना चाहते हैं लेकिन मन में थोड़ा अभिमान है कि मैं बहुत बड़ा विद्वान हूं इसलिए मैं इनको बताऊंगा वेदों का सार।